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राजा राम मोहन राय (Raja Ram Mohan Roy):story in hindi

राजा राममोहन राय को आधुनिक भारतीय राजनीतिक और सामाजिक चिन्तन का सिरमौर कहा जाता है। बी. मजूमदार के अनुसार आधुनिक भारत में राजनीतिक चिन्तन का क्रम राजा राममोहन राय से ठीक उसी तरह प्रारम्भ होता है जैसे पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन का इतिहास अरस्तू से।

Raja ram mihan roy kaun the

सोफिया फालेट ने उन्हें भारतीय इतिहास में एक ऐसे सजीव पुल के रूप में देखा है जिसके ऊपर होकर भारत अपने असीम अतीत से निकलकर अज्ञात भविष्य की ओर अग्रसर होता है। वे भारत में न केवल आधुनिकता के प्रवर्तक थे, अपितु उन्होंने सृजनात्मक सुधारवाद की नींव रखते हुए अकर्मण्यता, भाग्यवाद, विघटन, आदि के विरोध में प्रब आवाज उठायी और देश की विघटित सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को झकझोर दिया। उन्हें भारत के आधुनिक राजनीतिक आन्दोलन का जनक माना जाता है।

उन्होंने सदियों से सुषुप्त भारत में नये राजनीतिक जीवन का संचार किया। श्रीमती इन्दिरा गांधी के शब्दों में, “राममोहन राय ने हमें आधुनिकता की राह दिखायी। उनकी प्रतिभा में रचनात्मक सजीवता होने के कारण उन्होंने अतीत एवं समकालीन दोनों संस्कृति के सर्वोत्तम गुणों को आत्मसात किया था।” उनका चिन्तन कोरा कल्पनावादी (Utopians) न था बल्कि उन्होंने सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं के समाधान हेतु व्यावहारिक विकल्प प्रस्तुत किए और यही कारण है कि उनको आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिन्तन का जनक कहा जाता है। एक समाज-सुधारक, धार्मिक सुधारक, राजनीतिक विचारक और शिक्षाविद के रूप में उन्होंने देश की समस्याओं के लगभग सभी प्रमुख पहलुओं को छुआ और उनके समाधान प्रस्तुत किए।

राजा राममोहन राय चाहते थे कि न तो भारत में भूतकाल पर आंखें मूंद कर निर्भर रहा जाए और न ही पश्चिम का अन्धानुकरण किया जाये। दूसरी और उन्होंने यह विचार रखा कि विवेक-बुद्धि का सहारा लेकर नये भारत को सर्वोत्तम प्राच्य और पाश्चात्य विचारों को प्राप्त कर संजो रखना चाहिए। अतः उन्होंने चाहा कि भारत पश्चिमी देशों से सीखे, मगर सीखने की यह क्रिया एक बौद्धिक और सर्जनात्मक प्रक्रिया हो जिसके द्वारा भारतीय संस्कृति और चिन्तन में जान डाल दी जाए। इस प्रक्रिया का अर्थ भारत पर पाश्चात्य संस्कृति को थोपना नहीं हो। इसलिए वे हिन्दू धर्म में सुधार के हिमायती और हिन्दू धर्म की जगह ईसाई धर्म लाने के विरोधी थे।

राममोहन राय : जीवन परिचय (RAM MOHAN ROY: LIFE HISTORY)

राजा राममोहन राय का जन्म सन् 1772 में बंगाल में हुगली जिले के राधानगर ग्राम में हुआ था। उनके पिता रमाकान्त राय थे और माता का नाम था तारिणी देवी। उनके पिता वैष्णव तथा माता शाक्त थीं. अतः परिवार से ही उन्हें वैष्णव और शाक्त प्रभाव प्राप्त हुए। उनके पितामह कृष्णचन्द्र बनर्जी नवाब की सेवा में थे और उन्हें ‘राय’ की उपाधि प्राप्त हुई थी, इसलिए ‘राय’ शब्द उनके परिवार के सभी सदस्यों के नाम के साथ जुड़ गया था।

राममोहन राय वाल्यकाल से प्रतिभा के धनी थे। छः से नौ वर्ष की आयु में उन्होंने बंगला और फारसी सीखी। दस से तेरह वर्ष की उम्र में उन्होंने अरबी और हिन्दी सीखी। तेरह से पन्द्रह वर्ष के बीच में उन्होंने संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया; 37 से 42 वर्ष की आयु में अंग्रेजी, 47 से 49 की आयु में ग्रीक एवं हेब्रु तथा 59 से 60 की आयु में फ्रेंच और लेटिन भाषाएं सीखी।

सन् 1809 से 1814 तक उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी में नौकरी की। सन् 1815 में वे कोलकाता पहुंचे और ‘आत्मीय सभा’ की स्थापना की। सन् 1815 में ही उन्होंने ब्रह्मसूत्र का बंगला में अनुवाद प्रकाशित किया। सन् 1818 में उन्होंने सती प्रथा के उन्मूलन के लिए विख्यात आन्दोलन प्रारम्भ किया और परिणामस्वरूप 1829 में तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैटिंक ने सती-प्रथा को अवैध घोषित कर दिया।

सन् 1827 में राममोहन ने ब्रिटिश इण्डिया यूनीटेरियन एसोसियेशन की स्थापना की और 20 अगस्त, 1828 को ब्रह्म समाज की स्थापना राममोहन राय के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी और यद्यपि इसकी स्थापना के बाद वह केवल पांच ही वर्ष जीवित रहे तथापि ब्रह्म समाज के विचार क्रमशः बंगाल से बाहर दूर-दूर तक फैल गये और उन्होंने उदारतावाद, तर्कनावाद और आधुनिकता का वह वातावरण तैयार किया जिसने भारतीय चिन्तन में क्रान्ति उत्पन्न कर दी थी।

15 नवम्बर, 1830 को राममोहन राय ने जहाज द्वारा इंग्लैण्ड के लिए प्रस्थान किया। उन्हें भय था कि कहीं परम्परावादी ब्राह्मणों के प्रभाव से सती विरोधी अधिनियम रद्द न कर दिया जाए इसलिए उनके प्रचार को निष्फल करने के लिए वे इंग्लैण्ड पहुंचना चाहते थे।

इंग्लैण्ड में प्रसिद्ध अंग्रेज दार्शनिक और विधि सुधारक बेन्थम से उनकी धनिष्ठ मित्रता हुई तथा स्वयं ब्रिटिश सम्राट ने उनका सम्मान किया। वे बाद में इंग्लैण्ड से फ्रांस गये जहां बीमार पड़ गये। वे पुनः इंग्लैण्ड लौट आये और 20 सितम्बर, 1833 को ब्रिस्टल में उनका स्वर्गवास हो गया।

राममोहन राय : रचनाएं और पद्धति (Ram Mohan Roy: Writings & Methods)

राजा राममोहन राय की प्रमुख रचनाएं निम्नलिखित हैं :

  1. हिन्दू उत्तराधिकार कानून के अनुसार महिलाओं के प्राचीन अधिकारों पर कतिपय आधुनिक अतिक्रमण सम्बन्धी संक्षिप्त टिप्पणियां (1822); 2. प्रेस नियमन के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय एवं सम्राट को याचिका (1823);
  2. अंग्रेजी शिक्षा पर लाई एम्हर्स्ट के नाम एक पत्र (1823); 4. ईसाई जनता के नाम अन्तिम अपील (1823);
  3. भारत की न्यायिक एवं राजस्व व्यवस्था, आदि पर प्रश्नोत्तर (1832 );
  4. यूरोपवासियों को भारत में बसाने सम्बन्धी विचार (1831 ) |

राममोहन राय ने अपनी रचनाओं में राजनीतिक समस्याओं के व्यावहारिक समाधान के लिए ऐतिहासिक पद्धति का प्रयोग किया। उनके अभिमत में गजनी तथा गोरी ने राजपूतों की आन्तरिक कलह का लाभ उठाकर भारतीयों को पराधीन बना दिया।

राजा राममोहन राय के अनुसार निरंकुशता के अलावा भारतीय नरेशों की आपसी फूट तथा कायरता, युद्धकौशल की कमी तथा जनता में देशभक्ति के अभाव ने भारत को अहिंसा के मार्ग की ओर प्रवृत्त कर गुलामी की बेड़ियों में जकड़ लिया। राममोहन राय न केवल भारतीय इतिहास के ज्ञाता थे, वरन् यूरोप तथा अमरीका के इतिहास का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था। उनकी समस्त रचनाओं में यह ऐतिहासिक अनुभव और दृष्टि परिलक्षित होती है।

राममोहन राय : चिन्तन के प्रेरणा स्रोत (Ram Mohan Roy: Sources of Philosophy)

राममोहन राय के विचारों पर माण्टेस्क्यू, बेन्थम तथा ब्लेकस्टोन की छाप स्पष्टतः परिलक्षित होती है।

माण्टेस्क्यू के प्रभाव में उन्होंने शक्ति पृथक्करण तथा विधि के शासन को स्वीकार किया। इसी प्रकार बेन्थम के शासन, नैतिकता एवं व्यवस्थापन सम्बन्धी विचारों का इन पर प्रभाव पड़ा। बेन्थम के समान राममोहन राय ने भी प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त का तिरस्कार किया।

बेन्थम के प्रभाव में राममोहन राय ने भारत में दीवानी तथा फौजदारी दण्ड संहिता निर्मित करने की जोरदार मांग प्रस्तुत की, किन्तु बेन्थम इस विचार से सहमत नहीं थे कि मानव मात्र की समान आवश्यकताएं होती हैं तथा इस अर्थ में सभी मनुष्य समान हैं।

राममोहन राय का मत था कि भारत की जनता के लिए वे ही नियम तथा कानून उपयुक्त हैं जो यहां की मान्यताओं, रीतियों तथा परिस्थितियों से मेल खाते हों। बेन्थम के बाद न्यायशास्त्री ब्लेकस्टोन का राममोह राय पर प्रभाव पड़ा। अंग्रेजी संविधान की गूढ़ विशेषताओं का ज्ञान प्राप्त कर राममोहन राय ने भारत में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की बात कही।

राममोहन राय के चिन्तन की आध्यात्मिक आधारशिला ( Metaphysical Foundation of Ram Mohan’s Thought)

राममोहन राय ने उपनिषदों के आध्यात्मिक एकत्ववाद के तात्विक सिद्धान्त को स्वीकार किया, किन्तु जिसमें प्रचलित साथ ही साथ वे एकेश्वरवादी भी थे।

ईश्वरत्व की एकता उनके दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त था। हिन्दू धर्म के ब्रह्म ज्ञान और इस्लाम के एकेश्वरवाद ने उनके विचारों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भाग लिया । कुरान के तौहीद (ईश्वर की एकता) की धारणा के प्रभाव के फलस्वरूप राममोहन राय ने हिन्दुओं के बहुदेववादी विचारों का खण्डन किया।

सन् 1816 में उनका वेदान्तसार प्रकाशित हुआ बहुईश्वरवादी तथा कर्मकाण्डग्रस्त धर्म के स्थान पर वेदान्तीय एकेश्वरवाद को अपनाने के लिए दलीलें थीं। राममोहन राय के चिन्तन में प्राकृतिक धर्म के तत्व भी देखने को मिलते हैं। उन्हें आत्मा के अमरत्व में भी विश्वास था। ये प्रदायिकता अन्धविश्वास तथा मूर्तिपूजा के घोर शत्रु और एकेश्वरवाद के उत्समर्थक थे।

राममोहन राय नास्तिकता को प्रोत्साहन न देकर विश्वास (faith) के स्थान पर विवेकी सृजन (rational thinking) के समर्थक थे। व्यक्ति की गरिमा में उन्हें असीम विश्वास था, अतः उनकी मान्यता थी कि धर्म और विश्वास को व्यक्ति पर हावी नहीं होने देना चाहिए। चिन्तन में विवेक की प्रधानता उन्हें प्रिय थी। उन्होंने स्वयं को एक ऐसे विश्व धर्म के प्रतिपादक के रूप में प्रस्तुत किया जो सम्प्रदाय और परम्परा के समस्त अस्वस्थ बन्धनों को अस्वीकार करता है।

के. पी. करुणाकरन के शब्दों में, “राममोहन के आध्यात्मिक और धार्मिक अध्ययन ने उन्हें नये धर्म में परिवर्तित नहीं किया बल्कि वह विश्व धर्म को मानने लगे तथा उनके दृष्टिकोण में विश्व की व्यापकता समाहित हो गयी।”स्पिनोजा की तरह राममोहन भी द्रव्य की संकल्पना में विश्वास करते थे और रामानुज की भांति उन्होंने द्रव्य को सगुण माना। उन्होंने एक सर्वशक्तिमान तथा अनन्त शिवत्व में पूर्ण सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार किया।

राममोहन राय के राजनीतिक विचार (Political thoughts of Ram Mohan Roy)

राममोहन राय का दार्शनिक दृष्टिकोण केवल पारलौकिक चिन्तन में लिप्त नहीं रहा। वे उच्चकोटि के राजनीतिक विचारक एवं द्रष्टा थे। यद्यपि वे गोपाल कृष्ण गोखले, तिलक और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की भांति एक राजनीतिज्ञ नहीं थे, तथापि देश-विदेश की राजनीति में उनकी गहरी दिलचस्पी थी और उन्हें इंगलैण्ड की राजनीति का अच्छा ज्ञान था।

भारत में सामाजिक और राजनैतिक नव चेतना जगाने के कारण ही उन्हें ‘नवीन भारत का सन्देशवाहक’ कहा जाता है। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने उन्हें ‘भारत में संवैधानिक आन्दोलन का जनक कहा था। सन् 1821 में ‘संवाद कौमुदी’ पत्रिका के प्रारम्भ द्वारा उन्होंने वर्षों से सुषुप्त राजनीतिक चिन्तन को एक नयी दिशा प्रदान की तथा इसके माध्यम से भारतीयों के प्रारम्भिक राजनीतिक अधिकारों की मांग प्रस्तुत की।

उस युग में न कोई राजनीतिक जीवन था और न कोई विदेशी हुकूमत के सामने अपनी शिकायतें रखने की बात सोचता था। ऐसे युग में राममोहन राय ने ओजपूर्ण राजनीतिक विचार व्यक्त किए और अपने राजनीतिक आन्दोलनों को वे शासन सत्ता के केन्द्र तक ले गये। उसके प्रमुख राजनीतिक विचार इस प्रकार हैं

(1) वैयक्तिक तथा राजनीतिक स्वतन्त्रता- राममोहन राय वैयक्तिक स्वतन्त्रता तथा अधिकारों के प्रबल समर्थक थे। जॉन लॉक तथा टामस पेन की भांति उन्होंने प्राकृतिक अधिकारों की पवित्रता को स्वीकार किया। जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति धारण करने के प्राकृतिक अधिकारों के साथ-साथ उन्होंने व्यक्ति के नैतिक अधिकारों का भी समर्थन किया, किन्तु उन्होंने अपने प्राकृतिक अधिकारों की धारणा की सामाजिक हित के सांचे में ढालकर उग्र व्यक्तिवादी चिन्तक के बजाय समाजवादी दार्शनिक की झलक प्रस्तुत की है।

अधिकारो तथा स्वतन्त्रता की व्यक्तिवादी अवधारणा के समर्थक होते हुए भी उन्होंने आग्रह किया कि राज्य को समाज सुधार तथा शैक्षिक पुनर्निर्माण के लिए विधि निर्माण करना चाहिए। ये चाहते थे कि राज्य को निर्बल तथा असहाय व्यक्तियों की रक्षा करनी चाहिए।

राज्य का कर्तव्य है कि वह जनता की सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक और राजनीतिक दशाओं के सुधार के लिए प्रयत्न करे।वाल्टेयर, मॉण्टेस्क्यू तथा रूसो की भांति राममोहन राय को स्वतन्त्रता के सिद्धान्त से उत्कट प्रेम था। वैयक्तिक स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक होने के साथ-साथ वे निजी बातचीत में राष्ट्रीय मुक्ति के आदर्श की भी चर्चा किया करते थे।

उनका कहना था कि स्वतन्त्रता मानव मात्र के लिए एक बहुमूल्य वस्तु हैं, किन्तु राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है। उन्हें स्वतन्त्रता की मांग से गहरी सहानुभूति थी, चाहे वह मांग विश्व के किसी भी कोने से उठी हो उन्हें यूनानियों तथा नेपल्सवासियों की स्वतन्त्रता की मांग से सहानुभूति थी। इसलिए जब सन् 1820 में नेपल्स में स्वेच्छाचारी शासन की पुनः स्थापना हो गयी तो राममोहन राय को बहुत क्षोभ हुआ।

फ्रांस की 1830 की क्रान्ति से उनके हृदय को बड़ी प्रसन्नता हुई। राष्ट्रीय स्वाधीनता के सन्दर्भ में राममोहन राय की आकांक्षा और निष्ठा को इंगित करते हुए विपिनचन्द्र पाल ने लिखा है- ” राजा राममोहन राय ही वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने भारत की स्वतन्त्रता का सन्देश प्रसारित किया…….।”

(2) शासन का व्यापक कार्यक्षेत्र- राममोहन राय व्यक्तिवाद अथवा राज्य द्वारा कम से कम हस्तक्षेप के अनुगामी नहीं थे। उन्होंने शासन के कार्यक्षेत्र को अधिक से अधिक व्यापक बनाने के विचार को अपना समर्थन दिया। वे कम्पनी शासन को भारत की सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा शैक्षिक उन्नति के लिए प्रोत्साहित करना चाहते थे।

उन्होंने शासन द्वारा धर्म-सुधार के कार्य को करने की भी अनुमति दे दी थी, ताकि असत्य एवं अधार्मिक कृत्यों पर शासन अपना नियन्त्रण स्थापित कर सके। उनके अनुसार भारत में प्रचलित अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवहार को शासन की आज्ञा से ही नियन्त्रित एवं नियमित किया जा सकता था।

(3) प्रेस की स्वतन्त्रता – राममोहन राय प्रेस की स्वतन्त्रता के महान समर्थक थे। उनका पत्र सम्वाद कौमुदी’ बंगला तथा अंग्रेजी भाषा में और दूसरा पत्र ‘मिरात उल अखबार’ फारसी भाषा में प्रकाशित होता था। वे समाचार पत्रों में निर्भीक और निष्पक्ष समीक्षा के पक्ष में थे।

उन्होंने यह विचार प्रस्तुत किया कि चूंकि भारत की शासन व्यवस्था प्रतिनिधि शासन के सिद्धान्त पर आधारित नहीं थी, ऐसी स्थिति में प्रेस की स्वतन्त्रता आवश्यक थी ताकि इस माध्यम से वाद-विवाद की स्वतन्त्रता प्राप्त हो सके।

प्रेस की स्वतन्त्रता का समर्थन करते हुए सन् 1823 में हाई कोर्ट के सामने एक पिटीशन प्रस्तुत करके उन्होंने लिखित अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की मांग की थी। उस समय गवर्नर जनरल ने प्रेस आर्डिनेन्स जारी कर दिया था कि समाचार पत्र निकालने के लिए सरकार से विशेष लाइसेंस लेना पड़ेगा।

राममोहन राय ने अपने कुछ साथियों से मिलकर सर्वोच्च न्यायालय में प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए जो अपील की वह निष्फल रही और तब उन्होंने अपनी अपील ‘किंग-इन-कौंसिल’ में की, वह भी निष्फल रही। राममोहन राय का मुख्य तर्क था कि प्रेस की स्वतन्त्रता शासक और शासित दोनों के लिए हितकर है।

शासन के लिए यह इस दृष्टि से लाभप्रद है कि उसे अपनी शासन नीति के बारे में जनता के विभिन्न विचारों का पता लग जाता है। जनता के लिए प्रेस की स्वतन्त्रता इस दृष्टि से हितकर है कि इससे ज्ञान का प्रसार होता है जिससे मानसिक विकास में सहायता मिलती है।

(4) न्यायिक व्यवस्था- राजा राममोहन राय प्रथम भारतीय थे जिन्होंने शासन और न्याय विभागों को पृथक करने की आवाज उठायी। उन्होंने अनुरोध किया कि भारत में सेवा करने वाले दण्डनायकों के न्यायिक तथा प्रशासकीय कार्यों को पृथक् कर दिया जाए। ‘भारत में राजस्व और न्यायिक व्यवस्था’ (An Exposition of the Revenue and Judicial System in India) नामक अपनी पुस्तिका में उन्होंने निर्भीकता से न्यायिक प्रशासन का मूल्यांकन किया और भारत में न्यायिक व्यवस्था के स्वरूप के बारे में अपने विचार रखे।

उन्होंने न्यायालयों का सुधार, देश के न्यायालयों का यूरोपीय लोगों पर क्षेत्राधिकार, जूरी प्रथा, कार्यकारी तथा न्यायिक पदों का पृथक्करण, विधि का संहिताकरण, विधि निर्माण में जनता से परामर्श करना, रैयत की दशा का सुधार तथा उनकी रक्षा के लिए कानूनों का निर्माण तथा स्थायी भूमि प्रबन्ध पर जोर दिया।

उन्होंने पुरातन भारतीय व्यवस्था में प्रचलित न्याय पंचायत का समर्थन करते हुए प्रस्तावित किया कि उसी प्रकार की जन सम्बद्ध संस्था द्वारा ही न्यायिक प्रणाली चलनी चाहिए। जूरी प्रथा के बारे में उनका विचार या कि अवकाश प्राप्त और अनुभवी भारतीय विधि विशेषज्ञों को जूरी का सदस्य बनाना चाहिए।

(5) विधि सम्बन्धी धारणा — राममोहन राय का विधिशास्त्र सम्बन्धी ज्ञान गहन था। उन्होंने विधि को रीति-रिवाजों एवं सामाजिक मान्यताओं से सम्बन्धित माना था। उनके अनुसार विधि का आधार कालान्तर से चली आ रही सामाजिक मान्यताएं होती हैं जो समय पाकर सम्प्रभु द्वारा विधि में हेर-फेर किया जा सकता है और वह मान्य भी है, किन्तु वे मान्य विधियों में स्वेच्छाचारिताजन्य परिवर्तन के पक्षपाती नहीं थे।

यदि प्रचलित विधि तर्कसम्मत है तथा जनकल्याणकारी है तो कोई कारण नहीं कि उसकी मान्यता शासन द्वारा समाप्त कर दी जाये। यदि वह अन्यायपूर्ण है तो चाहे कितनी भी पुरानी मान्यता क्यों न हो वह निरस्त की जा सकती है। कानून और नैतिकता के सम्बन्ध पर विचार करते हुए वे कहते हैं कि कुछ नैतिक नियम कानून से भी अधिक बाध्यकारी होते हैं तो कुछ कानून भी नैतिक नियमों से अधिक प्रभावशील होते हैं।

अन्त में उन्होंने यह माना कि कानून चाहे नैतिक हों अथवा न हों फिर भी हमें उनका पालन करना चाहिए। उन्होंने विधि के क्षेत्र में गवर्नर जनरल द्वारा बनाये गये कानूनों को उचित नहीं माना। उनका यह तर्क था कि भारत पर शासन करने की अन्तिम सम्प्रभु-शक्ति स संसद सम्राट में निहित है। इसलिए वे चाहते थे कि स-संसद सम्राट ही भारत के लिए कानून पारित करे न कि गवर्नर-जनरल ।

उनका विचार था कि एक भारतीय आपराधिक विधि संहिता तैयार की जाये और वह ऐसे सिद्धान्तों पर आधारित हो जो देश की जनता के विभिन्न वर्गों में आम तौर पर प्रचलित हो और जिन्हें वे सब स्वीकार कर लें। विधि संहिता जटिल न होकर स्पष्ट, सरल और जन कल्याण की संरक्षिका होनी चाहिए।

(6) भारत में यूरोप निवासियों का आवास — सन् 1832 में ब्रिटिश कॉमन सभा की प्रवर समिति ने भारत में यूरोपीय लोगों के बसने के प्रश्न पर राममोहन राय की राय मांगी। 1813 के चार्टर एक्ट ने यूरोपियनों को भारत में भूमि खरीदकर अथवा पट्टे पर लेकर बसने के अधिकार से वंचित कर दिया था। राममोहन राय का विचार था कि यदि कुछ यूरोपीय भारत में स्थायी रूप से रहकर कृषि कार्य का व्यापार करें तो भारत की उससे लाभ होगा, क्योंकि यूरोपीय लोग अपनी पूंजी लगाकर वैज्ञानिक प्रणाली से व्यापार करेंगे जिससे देश के कृषि कार्य, खनिज, व्यापार, शिल्प कला, आदि की उन्नति होगी।

(7) मानवतावाद एवं विश्व भ्रातृत्व – राममोहन राय मानवतावाद की प्रतिमूर्ति थे, विश्व भ्रातृत्व के उपासक थे और धार्मिक मत-मतान्तरों से ऊपर उठकर सार्वभौम धर्म के चिन्तक थे। उनकी मान्यता थी कि सम्पूर्ण मानव समाज एक ही विशाल परिवार है और विभिन्न राष्ट्र तथा जातियों के लोग सिर्फ उसकी शाखाएं हैं।

उनका कहना था कि सभी देशों के समझदार लोग अनुभव करते हैं कि मानव समाज के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान को सहज बनाना चाहिए और उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। उन्होंने एक ऐसे विश्व संगठन की कल्पना की थी जिसमें दो राष्ट्रों के बीच के मतभेदों को पंच फैसले द्वारा निबटाने के लिए भेजा जा सके।

डॉ. वी. पी. वर्मा के शब्दों में, “वे महान मानवतावादी तथा सार्वभौमतावादी थे और डेविड ह्यूम की भांति सार्वभौमिक सहानुभूति के सिद्धान्त को मानते थे।” संक्षेप में, राय का अन्तर्राष्ट्रीयतावाद बहुत ऊंचे दर्जे पर था। उनकी ईश्वर प्रार्थना में अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की झलक मिलती है -“परमात्मा धर्म को ऐसा बना दे जो मनुष्य मनुष्य के बीच भेदों और घृणा को नष्ट करने वाला हो और मानव जाति की एकता तथा शान्ति का प्रेरक हो।”

राममोहन राय के सामाजिक विचार (Social Thoughts of Ram Mohan Roy)

राममोहन राय वस्तुतः एक समाज सुधारक थे जिन्होंने सामाजिक पुनर्निर्माण एवं शिक्षा के क्षेत्र में उत्तम कार्य किया। उन्हें भारत की सामाजिक क्रान्ति का अग्रदूत कहा जा सकता है। उन्होंने यह विश्वास व्यक्त किया कि धर्म और समाज सुधार की अनुपस्थिति में केवल राजनीतिक विकास का कोई मूल्य नहीं रहेगा। उन्होंने राजनीतिक प्रगति और सामाजिक-धार्मिक सुधारों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध सुनिश्चित करते हुए निम्नलिखित विचार प्रस्तुत किए :

(1) मूर्ति पूजा का विरोध — राममोहन राय ने मूर्ति पूजा का घोर विरोध किया। उन्होंने इस मत का प्रतिपादन किया कि मूर्ति पूजा हिन्दू धर्म का कोई मौलिक अंग नहीं है अपितु इसका चलन बाद में जाकर हुआ है। राममोहन राय का कहना था कि “उपनिषद अद्वैतवाद की शिक्षा देते हैं जिसमें मूर्ति पूजा का कोई स्थान ही नहीं है।”

(2) सती प्रथा का विरोध —राम मोहन राय सती प्रथा के विरुद्ध अभियान चलाने वाले प्रथम भारतीय थे। उनकी दृष्टि में सती प्रथा या ‘सहमरण’ शास्त्रसम्मत प्रथा नहीं है, शास्त्र विकृत कुसंस्कार हैं। उनके उग्र विरोध कारण ही लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने एक आज्ञा जारी कर सती प्रथा को सन् 1829 में निषिद्ध घोषित कर दिया।

सोफिया फालेट के शब्दों में, “राममोहन राय ने हिन्दू धर्मग्रन्थों के अपने गम्भीर ज्ञान के आधार पर यह प्रमाणित किया कि सती प्रथा धर्मसंगत नहीं थी। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी दिखाया कि स्वार्थी सम्बन्धीजन किसी धार्मिक प्रेरणा से नहीं, बल्कि विधवाओं के भरण-पोषण के खर्च से छुटकारा पाने के लिए इस प्रथा को जारी रखना चाहते थे।”

(3) नारी स्वातन्त्र्य एवं नारी शिक्षा के समर्थक — राममोहन राय आधुनिक भारत के नारी स्वातन्त्र्य के अग्रदूत माने जा सकते हैं। उन्होंने नारी स्वातन्त्र्य, नारी अधिकार और नारी शिक्षा पर बड़ा बल दिया तथा हिन्दू नारी के साथ किये जाने वाले अन्याय और अत्याचार की कटु निन्दा की। अपने मृत पति की सम्पत्ति में स्त्री को उचित भाग न देने के नियम की उन्होंने विशेष रूप से भर्त्सना की। वे चाहते थे कि सरकार ऐसा कानून पारित करे जिससे कोई भी पुरुष एक पत्नी के रहते हुए दूसरा विवाह न कर सके।

राममोहन राय का ही स्वप्न था कि बाल विधवाएं पुनर्विवाह करें और प्रौढ़ विधवाएं आत्म-सम्मान का जीवन व्यतीत करने के लिए शिक्षित की जाएं। उन्होंने यह मानने से इन्कार कर दिया कि स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा मन्द बुद्धि हैं। वे भारतीय महिलाओं को लीलावती, गार्गी, मैत्रेयी, आदि के समान विदुषी बनने की प्रेरणा देते थे।

(4) जाति प्रथा का विरोध– उन्होंने जाति व्यवस्था का भी घोर विरोध किया और इसे हिन्दू जाति का कलंक बताया। उनका विचार था कि जाति प्रथा दोहरी कुरीति है : उसने असमानता पैदा की है और जनता को विभाजित किया है और उसे “देश भक्ति की भावना से वंचित रखा है।” वे स्वयं अन्तर्जातीय विवाह के पक्ष में थे। शास्त्र का आधार प्रस्तुत करते हुए उन्होंने शैव विवाह पद्धति का समर्थन किया जिसमें उम्र, वंश एवं जाति का कोई बन्धन नहीं होता।

इस प्रकार राममोहन राय ने सामाजिक कुरीतियों तथा अन्याय की कटु भर्त्सना की और परम्परावाद का खुलकर विरोध किया, किन्तु उनका विश्वास था कि सामाजिक बुराइयों का अन्त करने का उग्र तरीका बुद्धिवाद का प्रचार करना है। इस प्रकार उनकी तुलना फ्रेंच ज्ञानकोश के सह- रचयिता दिदरो से की जा सकती है।

राजा राममोहन राय का जन्म कब हुआ था?

22 मई 1772 ई.

राजा राममोहन राय के पिता का क्या नाम है?

रामकंतो रॉय

आधुनिक भारत का जनक कौन है?

राजा राममोहन राय

ब्रह्म समाज की स्थापना कब और किसने किया था?

ब्रह्म समाज की स्थापना सन् 1828 में राजा राममोहन राय ने किया था।

सती प्रथा का अन्त किसने करवाया?

राजा राममोहन राय

निष्कर्ष

राम मोहन राय भारतीय राष्ट्रीयता के पैगम्बर और आधुनिक भारत के जनक थे। एक राजनीतिक चिन्तक, समाज-सुधारक और शिक्षाविद् के रूप में उन्होंने तात्कालिक भारत की समस्याओं के लगभग सभी प्रमुख पक्षों को छुआ और उनके निदान प्रस्तुत किये।

उन्हें स्त्रियों के उद्धार में रुचि थी, उन्होंने प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया। वे भारतीय सभ्यता के रैयतवाड़ी, कृषि प्रधान तथा देहाती आधार को अक्षुण्ण रखने के पक्ष में थे। साथ ही साथ वे यह भी चाहते थे कि भारत की भूमि पर आधुनिक वैज्ञानिक उद्योग खड़े किए जाएं।

संस्कृत के स्थान पर पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था का उन्होंने समर्थन किया, किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं हैं कि राजा राममोहन राय पाश्चात्य रंग में रंगे भारतीय थे, जिन्हें हर वस्तु पाश्चात्य रंग के अनुरूप ही स्वीकार्य थी। उन्होंने भारतीयता का त्याग नहीं किया था, उनका विरोध भारतीयकरण की विकृतियों से ही था। आधुनिकता के प्रभाव में उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता का मार्ग चुना। उन्होंने देश में नये राजनीतिक जीवन का सूत्रपात किया। अंग्रेज उन्हें एक निष्पक्ष भारतीय के रूप में देखते थे।

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